Thursday 31 March 2011

सार्वजनिक उद्यम ब्यूरो की गुलामी नहीं करेगा कल्याण निगम

खाद्य व रसद विभाग के प्रमुख सचिव को लिखी चिट्ठी

कर्मचारी कल्याण निगम सार्वजनिक उद्यम ब्यूरो का सरकारी अंकुश बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। वह ब्यूरो से अलग होने के लिए छटपटा रहा है। निगम ने खाद्य एवं रसद विभाग के प्रमुख सचिव को पत्र लिखकर सार्वजनिक उद्यम ब्यूरो से आजाद कर देने की गुहार लगाई है।सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक निगम के अधिशासी निदेशक रमेश चन्द्र मिश्र ने खाद्य एवं रसद विभाग के प्रमुख सचिव को लिखे पत्र में कहा है कि राज्य कर्मचारियों की भलाई के लिए सरकार द्वारा एक स्कीम बनाई गई जिसके तहत स्टाफ वेलफेयर बोर्ड का गठन किया गया था। इस बोर्ड के सभी निदेशक सरकारी अधिकारी हैं। ठीक इसी प्रकार कर्मचारी कल्याण निगम के गठन के समय भी उसे पूर्णत: वित्त पोषित किए जाने का निर्णय लिया गया था। एक ही मद में वेतन भत्तों के भुगतान के कारण भी स्टाफ वेलफेयर बोर्ड व कर्मचारी कल्याण निगम की सेवा शर्तो में भिन्नता की जाती है। यही नहीं निगम और बोर्ड में कर्मचारियों के सेवानिवृत्त की आयु में भी अन्तर है। सभी शर्ते समान होने की स्थिति में सेवा शर्तो में भी एकरूपता होनी चाहिए। प्रमुख सचिव से निगम के प्रति भेदभाव की ओर इशारा करते हुए अधिशासी निदेशक ने कहा कि निगम मानकर ही सेवा शर्तो में अंतर किया गया है। जबकि निगमों का गठन कम्पनीज एक्ट 1956 के तहत किया जाता है। इसमें राज्य सरकार का 51 प्रतिशत हिस्सा होता है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2008 में मुख्य सचिव की अध्यक्षता में गठित खाद्य एवं रसद विभाग, सार्वजनिक उद्यम विभाग, न्याय विभाग की कमेटी ने यह स्वीकार किया था कि कर्मचारी कल्याण निगम सार्वजनिक उद्यम ब्यूरो की परिधि में नहीं आता है। 5 अगस्त 2008 को उच्च स्तरीय समिति की बैठक में अधिशासी निदेशक ने निगम की ओर से पक्ष रखते हुए कहा था कि निगम शासन द्वारा पूर्णतया वित्त पोषित है। इसका उद्देश्य सामान्य दर पर कर्मचारियों को आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध कराना है। लाभ का उद्देश्य न होने के कारण ही कर्मचारी कल्याण निगम के तहत आने वाले सचिवालय खान-पान को उम ब्यूरो की परिधि से बाहर करने का निर्णय लिया जा चुका है। इसलिए निगम को भी ब्यूरो से अलग किया जाना चाहिए।

उच्च स्तरीय बैठक में सार्वजनिक उद्यम ब्यूरो ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि कर्मचारी कल्याण निगम घाटे में रहता है और इसमें कई वर्षो से बैलेंस शीट नहीं बनाई गई है। जब तक निगम ब्यूरो की परिधि में है तब तक इसके कर्मचारियों को पंचम वेतनमान आयोग की संस्तुतियों के अनुरूप सुविधाएं नहीं दी जा सकती हैं। ब्यूरो के निदेशक ने कहा कि फिलहाल इस निगम को ब्यूरो की परिधि से बाहर किए जाने में उसे कोई आपत्ति नहीं है। राज्य सरकार निगम को अलग कर सकती है।

समिति में शामिल खाद्य रसद विभाग के प्रमुख सचिव जैकेब थामस, सार्वजनिक उम ब्यूरो के निदेशक जीसी शुक्ल, उप सचिव सीपी सिंह, अपर विधि परामर्शी सुधीर चन्द्र श्रीवास्तव, विशेष सचिव चन्द्र प्रकाश, निगम के अधिशासी निदेशक रमेश चन्द्र मिश्र, मुख्यमंत्री के सचिव कामरान रिजवी व संयुक्त सचिव बी राम शास्त्री ने निगम को ब्यूरो से अलग करने की सहमति जताई थी। मगर आज तक निगम राज्य सरकार के बार-बार गुहार लगाने के बावजूद भी उसे ब्यूरो से मुक्त नहीं किया जा रहा है।

Wednesday 30 March 2011

आमोद-प्रमोद में डूबे मंत्री

फरवरी में ही 107 प्रतिशत मनोरंजन कर की वसूली
ब्रेन स्टोर्मिंग कर नए आमोद के स्रोत ढूंढ़े जाएंगे

मनोरंजन कर विभाग के अफसर मंत्री नकुल दुबे का भरपूर मन-रंजन कर रहे हैं। मंत्री के दूसरे विभागों में भी इस समय जबरदस्त वसूली चल रही है। मगर मनोरंजन कर विभाग के क्या कहने? सिर्फ फरवरी महीने में ही शत-प्रतिशत वसूली कर अफसरों ने उन्हें आमोद-प्रमोद में डुबो दिया है। मंत्री जी इतने गदगद हैं कि उन्होंने केबिल संचालन में आ रही गड़बड़ियों के खिलाफ जांच कराने का फरमान जारी कर दिया है। यही नहीं वे अप्रैल में होने वाली समीक्षा बैठक के दूसरे दिन ब्रेन स्टोर्मिग सत्र आयोजित कर आमोद के नए dोत ढूंढें़गे।

बीती नौ मार्च को मंत्री जी जब विभागीय समीक्षा करने बैठे थे तो मनोरंजन कर विभाग के अफसरों ने शत-प्रतिशत वसूली दिखा कर बाग-बाग कर दिया। अफसरों ने बताया कि फरवरी महीने में ही केवल 107 प्रतिशत वसूली हुई है। पिछले साल जब इसी महीने में समीक्षा बैठक हुई थी तो तबसे अब तक कर में 12 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। मंत्री ने कहा कि यह वृद्धि और तेज की जाय तथा पूरे प्रदेश को पांच जोन में बांट कर मुख्यालय के अफसरों से केबिल लेखा मिलान की आकलन तालिका एवं केबिल सेवा में एकमुश्त समाधान योजना की जांच कराई जाय। उन्होंने कहा है कि जिन जिलों में कमियां पाई जाएंगी, वहां के मनोरंजन कर निरीक्षकों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। विभागीय सूत्र बताते हैं कि मंत्री ने अलीगढ़ जिले में प्राप्त शिकायत पर मुख्यालय से एक टीम भेज कर आमोद एवं मनोरंजन कर निरीक्षकों की वित्तीय वर्ष 2010-11 के समस्त कार्यो व उपलब्धियों की जांच करने को कहा है। मुरादाबाद में केबिल सेवा में एकमुश्त समाधान योजना का विकल्प चुनने वाले केबिल ऑपरेटरों की समाधान योजना के आदेशों का शत-प्रतिशत पुनरीक्षण 31 मार्च तक करने को भी कहा है। 107 प्रतिशत की वसूली के बावजूद भी मंत्री केबिल लेखा मिलान से संतुष्ट नहीं हैं। वे शायद इसलिए इस पर जोर दे रहे हैं कि सबसे ज्यादा गड़बड़ियां केबिल संचालन में हैं। ऑपरेटर केबिल उपभोक्ताओं की पूरी जानकारी जिला मनोरंजन कर अधिकारी को नहीं देते हैं। दरअसल मनोरंजन कर अधिकारी ही ऑपरेटरों से मिले होते हैं और वे वास्तविक संख्या को कमीशनखोरी के चलते सामने नहीं आने देते हैं। विभाग के विशेष सचिव वीरेन्द्र प्रताप सिंह ने जिलाधिकारियों, मनोरंजन कर आयुक्त समेत सभी मनोरंजन कर निरीक्षकों को पत्र लिखकर कहा है कि अप्रैल की समीक्षा बैठक के दूसरे दिन मुख्यालय में ब्रेन स्टोर्मिग सत्र आयोजित कर इस बात पर विचार-विमर्श किया जाएगा कि मनोरंजन कर से प्राप्त होने वाली आय में अधिकाधिक वृद्धि के लिए आमोद के कौन से नए dोत हो सकते हैं। वर्तमान में प्रचालित आमोद के dोतों से शत-प्रतिशत मनोरंजन कर कैसे प्राप्त किया जा सकता है? विशेष सचिव ने कहा है कि जिलों में अधिकारियों और मनोरंजन कर निरीक्षक बिना किसी पूर्व सूचना के अनुपस्थित रहते हैं। मार्च चूंकि इस वित्तीय वर्ष का अंतिम महीना है इसलिए बिना किसी अपरिहार्य कारण के कोई भी अधिकारी व मनोरंजन कर निरीक्षक अवकाश न लें। फरवरी में मंत्री ने विभाग का लक्ष्य 20.27 करोड़ रुपए निर्धारित किया था जिसके सापेक्ष 21.27 करोड़ यानि 107 प्रतिशत कर वसूली अफसरों ने की है।

Tuesday 29 March 2011

भ्रष्टाचार के फावड़े से तालाब खोदेंगे अफसर


केंद्र ने खारिज कर दिया राज्य के अरबों रुपए का प्रस्ताव



लखनऊ। राज्य सरकार ने अब यूपी में भ्रष्टाचार के फावड़े से तालाब खोदने की तरकीब ढूंढ़ निकाली है। भूगर्भ जल विभाग के अफसर 124 विकास खंडों में पानी की दिक्कत दूर करने के लिए 952.63 करोड़ खर्च करने का खाका तैयार किए बैठे हैं। इन पैसों से वे वर्षा का जल संचय करेंगे। पिछले साल भी अधिकारी मनरेगा के 1197 करोड़ रुपए खर्च कर भ्रष्टाचार का तालाब खोदते रहे मगर पानी के संकट से निजात नहीं दिला पाए थे। अबकि बार केंद्र सरकार ने राज्य सरकार के मंसूबों को देखते हुए ही अरबों के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर जोर का झटका दिया है। भूगर्भ विभाग के सूत्रों के मुताबिक उसने प्रदेश में 124 विकास खंडों में जल संचयन एवं रिचार्ज योजनाओं की रूपरेखा लगभग तैयार कर ली है। इसके लिए विभाग ने जिलों से प्राप्त सूचनाओं को आधार मानकर 952.63 करोड़ रुपए खर्च करने की योजना कागजों पर तैयार कर ली है। मनरेगा के इन पैसों से अफसर भूमि संरक्षण, मेड़ बंदी, तालाबों का निर्माण, जीर्णोद्धार, चेक डैम, रिचार्ज पिट, वनीकरण, पीजोमीटर का निर्माण तथा जनजागरण किए जाएंगे। विभाग ने विभिन्न जिलों के जिलाधिकारियों की अध्यक्षता में गठित तकनीकी समन्वय समिति से करोड़ो के धन के लिए अनुमोदन भी करा लिया है। मगर सबसे चौकाने वाली बात यह है कि विभाग और विभाग के प्रमुख सचिव सुशील कुमार के आंकड़ों में ही विरोधाभास की स्थिति है। डीएनए ने जब उनसे पूछा कि यूपी में कुल कितने विकास खंड पानी से संकटग्रस्त हैं, तो उन्होंने बताया कि 200 से अधिक विकासखंडों में भूजल की समस्या है। वहीं विभाग 124 विकास खंडों में पानी के संकट के आंकड़े बनाए बैठा है।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष केलिए राज्य सरकार ने मनरेगा के पैसों से तालाब वगैरह खुदवाने का जो प्रस्ताव केंद्र को भेजा है, उसे केंद्र सरकार औपचारिक रूप से मानने को तैयार ही नहीं हो रही है। प्रमुख सचिव ने भी यह स्वीकार किया है कि केंद्र, राज्य सरकार के आंकड़ों को नहीं मान रही है। दरअसल मनरेगा के पैसों में लगातार हो रहे घपलों की शिकायतों से केंद्र अब चौकन्ना हो गया है। प्रमुख सचिव ने बताया कि पिछले साल 1197 करोड़ रुपए पानी से संकटग्रस्त विकासखंडों में खर्च करने के लिए केंद्र सरकार ने दिया था। मगर पानी की समस्या इस साल भी जस की तस बनी हुई है। मनरेगा के पैसों के दुरुपयोग की ही वजह से केंद्र ने जलसंचयन के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है। भूगर्भ विभाग के अनुसार आगरा के बरौली अहीर, मथुरा के नौझील, हाथरस के सादाबाद, सहपऊ, सासनी, एटा के मरहरा, सकीत व कासगंज, बागपत के बिनौली व पिलाना, बरेली के आलमपुर जाफराबाद, बदायूं के अम्बियापुर, आसफपुर, बिसौली, जगत, जुनावई, रजपुरा, सहसवान व सलारपुर, देवरिया के भाटपार रानी, फरुखाबाद के बढ़पुर, लखनऊ के माल, मुरादाबाद के बहजोई, डिंगरपुर व सम्भल, बिजनौर के जलीलपुर, रामपुर के चमरौहा, जेपी नगर के गजरौला, गंगेश्वरी व हसनपुर, मुजफ्फरनगर के साहपुर व ऊन, सहारनपुर के गंगोह, नकुर व ननीता आदि क्षेत्रों में भूजल का जबरदस्त संकट है।

ईमानदारी दिखाई तो नौकरी गंवाई!


चन्द्रशेखर आजाद कृषि विवि के रिसर्च इंजीनियर ने की थी यह खता


यूपी के विश्वविद्यालयों में भी भ्रष्टाचार की जड़ें काफी मजबूती के साथ पैठ बना चुकी हैं। मंत्रियों व ऊंचे ओहदों पर बैठे अफसरों के जरिए बनने वाले  विश्वविद्यालयों के कुलपति शैक्षिक माहौल बनाने के बजाय लूट-खसोट करना अपनी बपौती मान बैठते हैं। शहीदे आजम चन्द्रशेखर आजाद के नाम पर कानपुर में स्थापित कृषि विश्वविालय में तत्कालीन कुलपति डॉ. एसबी सिंह के खिलाफ विवि के ही रिसर्च इंजीनियर टीसी मिश्र ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाए तो प्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव अंखड प्रताप सिंह ने उन्हें ही विवि की सेवा से बाहर करवा दिया और अंततोगत्वा कहीं से न्याय भी नहीं मिलने दिया। चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय में भ्रष्टाचार का यह मामला आरटीआई के जरिए प्रकाश में आया है। वर्ष 2007 में विवि के रिसर्च इंजीनियर टीसी मिश्र ने मुख्यमंत्री को भेजे पत्र में लिखा है कि तत्कालीन कुलपति डॉ. एसबी सिंह ने मुख्य कार्मिक अधिकारी डॉ. डीएन शर्मा व अधिष्ठाता डॉ. केडी उपाध्याय के जरिए भ्रष्टाचार की झड़ी लगा दी। कुलपति ने इन अधिकारियों को पुरस्कार में इनके पुत्रों को अवैध तरीके से विवि में नियुक्त कर दिया। श्री मिश्र ने कहा कि मुख्य कार्मिक अधिकारी डॉ. डीएन शर्मा के पुत्र संजीव शर्मा का विषय वस्तु विशेषज्ञ पद के लिए साक्षात्कार पत्र एवं नियुक्ति आदेश डॉ. शर्मा के हस्ताक्षर से जारी किया जाना इस आरोप की पुष्टि करता है कि इस पूरी चयन प्रक्रिया में नैतिकता के सभी मापदंडों को तिलांजलि दे दी गई। विश्वविद्यालय द्वारा निकाले गए विज्ञापन में कम्प्यूटर प्रोग्रामर के पद भी विज्ञापित किए गए थे। बीटेक (कम्प्यूटर साइंस) व एमएससी योग्यताधारी किसी अभ्यर्थी को इस पद के उपयुक्त नहीं पाया गया। जिस कारण पूर्व निर्धारित योग्यता को शिथिल कर दूसरे विज्ञापन प्रकाशित किए गए। रिसर्च इंजीनियर ने अपने आरोपों में कहा कि डॉ. केडी उपाध्याय के लड़के कैलाश उपाध्याय की कम्प्यूटर प्रोग्रामर पर की गई नियुक्ति भी अवैध है। उनका कम्प्यूटर प्रशिक्षण सम्बंधी प्रमाण पत्र वास्तविक नहीं है। कैलाश का पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा सम्बंधी प्रमाण पत्र फर्जी है एवं वर्ष 2002 के बाद जालसाजी के माध्यम से प्राप्त किया गया है। इसी प्रकार कम्प्यूटर प्रोग्रामर पद पर नियुक्त किए गए अविनाश कुमार एवं राहुल देव के भी पोस्ट ग्रैजुएट के प्रमाण पत्र जालसाजी द्वारा तैयार किए गए प्रतीत होते हैं जिस कारण इनकी भी नियुक्ति अवैध है। मिस विदुषी कटियार की भी कम्प्यूटर प्रोग्रामर पद पर नियुक्ति की गई है। इनके पास कम्प्यूटर डिप्लोमा प्रमाण पत्र है जबकि वांछित योग्यता पोस्ट ग्रैजुएट डिप्लोमा है। वहीं विवि ने अपने एक आदेश के जरिए कृषि ज्ञान केंद्रों पर नियुक्त किए गए 12 लोगों को कानपुर मुख्यालय बुला लिया है जिनमें कम्प्यूटर प्रोग्रामर पद पर नियुक्त सभी अभ्यर्थी शामिल हैं जबकि इनकी सेवाओं की जरूरत नहीं है। रिसर्च इंजीनियर के आरोपों पर विशेष सचिव धीरज साहू ने आरटीआई के तहत पूछे गए सवालों को लेकर चन्द्रशेखर आजाद कृषि विवि के कुलपति से स्पष्टीकरण मांगा और कहा कि संजीव शर्मा के साक्षात्कार बोर्ड में उनके पिता डीएन शर्मा भी सदस्य या अध्यक्ष थे? अभ्यर्थियों द्वारा जिन संस्थाओं का पीजीडीसीए का प्रमाण पत्र दिया है, क्या वह संस्थाएं यह कोर्स चलाने के लिए सक्षम हैं? अब यह मामला सूचना आयोग पहुंच चुका है।

Sunday 27 March 2011

लोकायुक्त की तत्परता से सरकार परेशान

हरगांव नगर पंचायत अध्यक्ष के खिलाफ मुख्य सचिव को प्रत्यावेदन

लोकायुक्त न्यायमूर्ति एनके मेहरोत्रा भ्रष्टाचार की शिकायतों पर तत्परता से जांच ही नहीं करते बल्कि कार्रवाई के लिए शासन को भी तुरंत लिखते हैं। भ्रष्टाचार में आरोपित मंत्रियों के बाद लोकायुक्त ने अब पंचायतों में आ रही भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच कर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए सरकार को लगातार प्रत्यावेदन भेज रहे हैं। लाखों रुपयों के सरकारी धन के दुरुपयोग संबंधी एक मामले में उन्होंने सीतापुर जिले के हरगांव नगर पंचायत अध्यक्ष के खिलाफ मुख्य सचिव को प्रत्यावेदन भेज कर सख्त कार्रवाई की संस्तुति की है।

न्यायमूर्ति एनके मेहरोत्रा के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से राज्य सरकार निश्चित रूप से सकते में हैं। शायद इसीलिए लोकायुक्त द्वारा भेजे प्रत्यावेदनों पर बमुश्किल कार्रवाई की औपचारिकता पूरी की जाती है। सीतापुर जिले के हरगांव नगर पंचायत अध्यक्ष ने 15 सफाई कर्मियों की नियम विरुद्ध नियुक्तियां ही नहीं की बल्कि सात महीने का वेतन भी आहरित करवा लिया। विुत उपकरण खरीद के नाम पर लाखों रुपए डकार गए। कमीशनखोरी के चक्कर में नगर पंचायत अध्यक्ष ने विुत उपकरणों की खरीद संबंधित निविदा दो दिन पहले ही खोल दी। शिकायतकर्ता संकट मोचन मिश्र ने नगर पंचायत अध्यक्ष पर लिपिक जय प्रकाश अवस्थी की मिलीभगत से बोर्ड में प्रस्ताव लाकर विुत उपकरणों की खरीद में 40 लाख रुपयों को गोलमाल करने तथा कमीशनखोरी का आरोप लगाया है। लोकायुक्त ने अपनी जांच में यह स्वीकार किया है कि विुत उपकरणों की खरीद में मोहरबंद निविदाएं जो 24 फरवरी 2007 को खुलनी थीं, वह दो दिन पूर्व ही खोल दी गईं। यही नहीं नगर पंचायत अध्यक्ष ने 15 सफाई कर्मचारियों की नियम विरुद्ध नियुक्ति कर दी और डीएम को सूचना भी नहीं दी।

लोकायुक्त ने मुख्य सचिव को भेजे प्रत्यावेदन में कहा है कि नगर पंचायत अध्यक्ष बोर्ड के प्रस्तावों की प्रति जिलाधिकारी ही नहीं बल्कि मंडलायुक्त और नगर विकास विभाग के प्रमुख सचिव को भी नहीं भेजते हैं। विुत उपकरणों की खरीद का भुगतान बिना किसी अभियंता के सत्यापन के ही कर दिया। वहीं शिकायतकर्ता का कहना है कि नगर पंचायत अध्यक्ष जनता में भय दिखाने के लिए प्राइवेट चार से पांच असलहाधारियों को रखते हैं और हजारों रुपए सुरक्षा गार्डो पर खर्च करते हैं। यही नहीं वर्ष 2007 में सरकार ने संविदा कर्मचारियों की नियुक्ति पर रोक लगा दी थी, इसके बावजूद हरिनाम बाबू मिश्र ने शासनादेशों को दरकिनार कर 16 नियुक्तियां कर डाली थीं। इन नियुक्तियों में धन उगाही भी की गई।

Friday 25 March 2011

हैरत : यूपी में नहीं है गुटखा फैक्ट्री!


यूपी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अफसर गुटखा निर्माता कम्पनियों को सर्टीफिकेट बांटते फिर रहे हैं कि वे निर्दोष हैं और प्रदेश के पर्यावरण को कोई क्षति नहीं पहुंचा रहे हैं। कमीशनखोर अफसर कैंसर जैसी घातक बीमारियों के जरिए मौत बाट रहे गुटखा निर्माताओं की पीठ थपथपाने में लगे हैं और कह रहे हैं कि प्रदेश में श्याम बहार, पुकार, राजश्री, कमला पसंद व हरसिंगार गुटखा की फैक्ट्री ही नहीं है जबकि राजधानी में ही प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की नाक केनीचे फैक्ट्रियां चल रही हैं। अधिवक्ता एसपी मिश्र द्वारा आरटीआई के तहत मांगी गई सूचनाओं के विपरीत यूपी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने गुटखा निर्माताओं की भाषा में जो जवाब दिया है वह अफसरों की सांठगांठ की ओर इशारा करता है।

श्री मिश्र ने बोर्ड से पूछा कि राजश्री, कमला पसंद, श्याम बहार, हर सिंगार आदि की प्रदेश में कुल फैक्ट्रियों की संख्या, बीते तीन वर्षो में दिए गए अनापत्ति प्रमाण पत्र, पान मसाला कम्पनी की मशीनों व पैकिंग रेपर के प्रदूषण मानकों का पालन करने की नियमावली, बोर्ड द्वारा समय-समय पर की गई कार्रवाई की जानकारी दें। यूपी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने बड़ी चतुराई के साथ इस विवाद से पीछा छुड़ाते हुए क्षेत्रीय इकाइयों पर जवाब देने की जिम्मेदारी थोप दी। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बरेली के क्षेत्रीय अधिकारी अनिल कुमार चौधरी ने जवाब दिया कि उनके जिले में कोई भी गुटखा व पान मसाला की फैक्ट्री नहीं है। बुलंदशहर बोर्ड ने भी जवाब में ना कहा। मिर्जापुर के क्षेत्रीय अधिकारी कालिका सिंह ने कहा कि गुटखा की कोई फैक्ट्री नहीं है। वाराणसी के क्षेत्रीय अधिकारी एसबी सिंह ने कहा पान मसाले का कोई भी उद्योग चिन्हित नहीं है। मेरठ के क्षेत्रीय अधिकारी विवेक राय ने बताया कि गुटखा कम्पनी के नाम से कोई उद्योग मेरठ के अभिलेखों में नहीं है। मुजफ्फरनगर के क्षेत्रीय अधिकारी एके तिवारी ने कहा कि गुटखा उत्पादन करने वाला कोई भी उद्योग कार्यरत नहीं है। सहारनपुर का भी चार्ज देख रहे श्री तिवारी ने कहा कि यहां भी कोई फैक्ट्री नहीं है। मगर लखनऊ की क्षेत्रीय इकाई ने थोड़ा साहस दिखाते हुए कहा है कि श्याम बहार को अनापत्ति प्रमाण पत्र दिया गया है। गुटखा की मशीनों व पैकिंग रेपर के प्रदूषण सम्बंधी कोई मानक नहीं है।

इसके साथ ही लखनऊ के क्षेत्रीय अधिकारी एसके सिंह ने बताया कि पर्यावरणीय प्रदूषण के तहत अधिनियमों के अनुसार अनापत्ति प्रमाण पत्र उद्योग स्थापना से पूर्व प्रस्तावित स्थल प्राप्त किए जाने का प्राविधान है। इसी तरह उन्नाव, आगरा, कानपुर, रमाबाई नगर, झांसी, मथुरा, मुरादाबाद, बिजनोर और गाजियाबाद समेत प्रदेशभर में कहीं भी पान मसाला की फैक्ट्रियां नहीं हैं। अब सवाल यह उठता है कि अगर फैक्ट्रियां नहीं हैं क्या ये प्रदेश के बाहर से आ रहे हैं? जबकि स्थिति यह है कि लखनऊ स्थित तालकटोर इंडस्ट्रियल एरिया, अमौसी, राजाजीपुरम आदि इलाकों में गुटखा फैक्ट्रियां हैं। दूसरे, गुटखा निर्माता मसालों के पाउच पर उत्पादन स्थल का कोई जिक्र नहीं है।

Thursday 24 March 2011

अफसरी के साथ-साथ चौकीदारी की जिम्मेदारी

मनरेगा समेत विभिन्न योजनाओं पर रखेंगे नजर
तीन-तीन ग्राम पंचायतों के प्रभारी बने अफसर

यह शायद केंद्र की यूपीए सरकार और कांग्रेस के लगातार हमलों का ही असर है कि गांव में चलने वाली केंद्रीय योजनाओं को लेकर राज्य सरकार ने फर्जी ड्रामेबाजी शुरू कर दी है। केंद्र से पैसे ऐठने और विकास के प्रभावी क्रियान्वयन का बहाना लेकर ही मनरेगा समेत तमाम योजनाओं पर नजर रखने के लिए सरकार ने अफसरों को चौकीदारी करने की जिम्मेदारी दे दी है। खंड विकास अधिकारी से लेकर ग्राम्य विकास विभाग से जुड़े सभी आईएएस और पीसीएस अफसरों को तीन विकास खंड और तीन ग्राम पंचायतें सौंपी गई हैं।

राज्य सरकार द्वारा जिलाधिकारियों को लिखी गई चिठ्ठी में यह तो बिलकुल साफ हो ही गया है कि केंद्र की यूपीए सरकार और कांग्रेस पार्टी अगर यूपी में केंद्रीय योजनाओं पर आवंटित धन के बंदरबांट का आरोप लगा रही है तो वह मनगढ़ंत नहीं है। सरकार की तरफ से अनुसचिव आरपी सिंह ने जिलाधिकारियों को लिखे पत्र में कहा है कि ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम्य विकास विभाग की योजनाओं का क्रियान्वयन शासन की मंशानुरूप प्रभावी ढंग से नहीं हो पा रहा है। योजना के क्रियान्वयन न होने के कारण लाभ नहीं मिल पा रहा है। इसलिए निर्णय लिया गया है कि खंड विकास अधिकारी से लेकर उच्च स्तर के अधिकारी तीन-तीन ग्राम पंचायतों जिनमें एक अंबेडकर ग्राम पंचायत होगी, के वे प्रभारी के रूप में कार्य करेंगे। अनुसचिव ने डीएम को लिखा है कि ग्राम पंचायतों का आवंटन खंड विकास अधिकारियों एवं अतिरिक्त कार्यक्रम अधिकारियों के लिए मुख्यालय से किया जा रहा है।

सूत्र बताते हैं कि मुख्यालय स्तर से जिन बड़े अफसरों को योजनाओं की निगरानी का जिम्मा सौंपा गया है उनमें अब विभाग से हट चुके पूर्व सचिव मनोज कुमार सिंह को सोनभद्र जिले के विकास खंड क्रमश: चोपन व म्योरपुर, ग्राम्य विकास आयुक्त संजीव कुमार को बाराबंकी के बनी कोडर व रामनगर, अपर आयुक्त अनुराग यादव को बहराइच के शिवपुर व बलहा, अपर आयुक्त प्रशासन बादल चटर्जी को कौशाम्बी के सरसवां, विशेष सचिव आरएन सिंह को इलाहाबाद के करछना व बहरिया, संयुक्त सचिव सीताराम यादव को चंदौली के नौगढ़ व बरहनी, अपर आयुक्त महेश अग्निहोत्री को कानपुर देहात के मलासा, श्रवण खेड़ा व अकबरपुर, अपर आयुक्त बलिराम को जालौन के महेवा, रामपुरा व कदौरा, उपसचिव डीपी सिंह को कांशीरामनगर के सिढ़पुरा व अमापुर, अनुसचिव आरपी सिंह को जौनपुर के जलालपुर व महराजगंज, अनुसचिव राम सेवक को बरेली के शेरगढ़, रामनगर व भुता, वरिष्ठ उपायुक्त भारत यादव को छत्रपतिशाहूजी महराजनगर के तिलोई व शाहगढ़, वरिष्ठ उपायुक्त केएन लाल को हमीरपुर के कुरारा, मुख्य वित्त एवं लेखाधिकारी शिवाकांत शुक्ला को रायबरेली के अमावा व बछरावां, उपायुक्त जगदीश सिंह को मिर्जापुर के कोन व राजगढ़, उपायुक्त सुभाष श्रीवास्तव को शाहजहांपुर के बांदा व जलालाबाद, उपायुक्त वीके सिंह को अंबेडकरनगर के टांडा व रामनगर, उपायुक्त वीके भागवत को वाराणसी के अराजलाइन व चिरगांव, सहायक आयुक्त पीके सिंह को उन्नाव के सुमेरपुर व नवाबगंज, सहायक आयुक्त अरविंद कुमार को कानपुर नगर के ककवन व विधनू, सहायक आयुक्त जगदीश त्रिपाठी को हरदोई के बावन व माधोगंज, सहायक आयुक्त सुशीला सिंह को आगरा के अचनेरा, आकोला व फतेहपुर सीकरी, सहायक आयुक्त प्रतिभा सिंह को सीतापुर के कसमंडा व पिसावां, लेखाधिकारी युग्गीलाल दीक्षित को श्रावस्ती के मिलौमा व हरिहरपुरसनी समेत 31 बड़े अफसरों को इन विकासखंडों की जिम्मेदारी दी गई है तथा ये अधिकारी अपने मातहत छोटे अफसरों को तीन-तीन ग्राम पंचायतों की देखरेख के लिए जिम्मा सौंपेंगे।

Wednesday 23 March 2011

सरकार के पास नहीं जन्म-मृत्यु के आंकड़े

2010 के कलेंडर में बच्चे कितने जन्मे पता नहीं
2009 के जन्म-मृत्यु रजिस्टर भी जमा नहीं हुए

यह कितना आश्चर्यजनक है कि पिछले कलेंडर वर्ष में यूपी में कितने बच्चों का जन्म हुआ और कितने लोगों की मृत्यु हुई है, जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण की सांख्यकीय रिपोर्ट सरकार के पास नहीं है? वर्ष 2010 यानि जनवरी 2010 से दिसंबर 2010 तक जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण की सांख्यकीय रिपोर्ट अभी तक मुख्य रजिस्ट्रार को सौंपी नहीं जा सकी है।

जिलों में बैठे अफसर कितने लापरवाह हैं इसकी मिशाल मुख्य रजिस्ट्रार व पंचायतीराज विभाग को पिछले वर्ष की सांख्यकीय रिपोर्ट न मिलने से देखने को मिली है। सरकारी सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक पंचायतीराज विभाग के निदेशक ने समस्त जिला पंचायतराज अधिकारियों को लिखे पत्र में कहा है कि जन्म एवं मृत्यु रजिस्ट्रीकरण नियमावली 2002 के नियम 4 के अनुसार मुख्य रजिस्ट्रार जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण हर साल सांख्यकीय रिपोर्ट राज्य सरकार को प्रस्तुत करता है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि जनपद स्तर पर जिला पंचायतराज अधिकारी द्वारा ग्राम स्तर पर नामित सभी रजिस्ट्रार जन्म एवं मृत्यु, अर्थात ग्राम पंचायत अधिकारी व ग्राम विकास अधिकारियों के स्तर से चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग द्वारा निर्धारित रूपपत्रों पर वर्ष 2010 की सूचनाएं मुख्य चिकित्साधिकारी को 31 जनवरी 2011 तक अवश्य उपलब्ध करा दें। लेकिन तीन माह के बीत जाने के बाद भी जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण की सांख्यकीय रिपोर्ट सरकार को प्रस्तुत नहीं की जा सकी है। दरअसल सरकार को जब जरूरत पड़ती है तब ही यह आंकड़े बटोरने की खानापूर्ति की जाती है। वैसे भी जिलों से सही आंकड़े सरकार के पास नहीं आते हैं। सरकारी सूत्रों का कहना है कि आनन-फानन में मंगाए जाने वाली सांख्यकीय रिपोर्ट ज्यादातर विश्वसनीय होती ही नहीं है। जिस रूपपत्रों को भरकर ग्राम पंचायत अधिकारी या ग्राम विकास अधिकारी द्वारा भेजने की प्रक्रिया की जाती है वह सिर्फ खाना पूर्ति करने वाली ही होती है। गांव स्तर पर ये अधिकारी जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण की रिपोर्ट को रखने में हीलाहवाली करते हैं। पता चला है कि जिलों में ग्रामीण स्तर पर स्थानीय अधिकारी मनगढं़त संख्या भेज कर छुट्टी पा लेते हैं। पंचायतीराज अधिकारियों का कहना है कि यह आंकड़े महत्पूर्ण होते हैं। इन आंकड़ों से प्रदेश की प्रत्येक वर्ष बढ़ती जनसंख्या का पता चलता है। सरकार को भी विकास कार्यो में इससे सहूलियत मिलती है। गौरतलब है कि प्रत्येक जन्म रजिस्टर, मृत्यु रजिस्टर और मृत जन्म रजिस्टर को रजिस्ट्रार अपने कार्यालय में रखता है। सबसे चौकाने वाली बात यह है कि जिलों में अभी तक 2009 तक के जन्म-मृत्यु पंजीकरण रजिस्टर जमा नहीं हो पाए हैं। जब दो साल के पीछे का रजिस्टर इकट्ठा नहीं हो पाए हैं तो 2010 का सांख्यकीय रिपोर्ट राज्य सरकार को कैसे भेज सकें होंगे? जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण की सांख्यकीय रिपोर्ट पर पंचायतीराज विभाग के सचिव आलोक कुमार ने शासन की मीटिंग में व्यस्तता का बहाना बता कर टाल गए तो डीजी हेल्थ एसपी राम ने भी अपने को शासन की मीटिंग में व्यस्त बताया।

Tuesday 22 March 2011

मुलायम से खीझ नहीं मिटा पा रहीं मायावती

गुरुवार को पुलिस ने क्रूरता में नरमी बरती
गुरुवार को पुलिस ने क्रूरता में नरमी बरती



लखनऊ। सपा के 7, 8 और 9 मार्च को हुए उग्र आंदोलन के इतर गुरुवार का विरोध प्रदर्शन गांवों तक फैला तो वहीं पुलिसिया तांडव इस बार कम जरूर दिखाई पड़ा। यह शायद संसद तक उठे मुख्यमंत्री के खिलाफ विरोध की आवाज व कोर्ट की नोटिस का ही परिणाम था कि सरकार ने खुद को शर्मसार मानते हुए पुलिस को बर्बरता से बचने की सलाह दी हो। लेकिन जिस तरह से सरकारी स्तर पर सपाइयों से निपटने की तैयारियां चल रही थीं उससे तो साफ हो ही गया कि सपा मुखिया अपने इरादे में सफल रहे और बसपा नेत्री मुलायम से अपनी पुरानी खीझ सरकार में रहते नहीं निकाल पा रही हैं।

दरअसल मायावती की मुलायम के साथ राजनीतिक वैमनस्यता जगजाहिर है। उन्हें जब भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का मौका मिलता है वे अपनी पुरानी खीझ निकालने में ही पूरी की पूरी सरकारी ताकत झों देती हैं। जब-जब भी वे यूपी में सत्ता में आईं सपाइयों के लिए आफत बन कर आईं। पार्टी नेताओं का यह आरोप बिलकुल बेबुनियाद नहीं है कि उन्हें उत्पीड़न और प्रताड़ना के लिए सिर्फ सपाई ही नजर आते हैं। दूसरे दलों के प्रति उनका आक्रोश इतना उबाल नहीं मारता। दूसरे, मुख्य विपक्षी दल तथा बसपा को बार-बार चुनौती देना भी सरकार की मुखिया को नागवार गुजरता है तथा सीधे तौर पर सपाई ही उनके कोपभाजन का शिकार बनते हैं। राजनीतिक समीक्षक भी यह स्वीकार करते हैं कि सपा ही उन्हें चुनौती देने में सक्षम है और दूसरे दल इस काबिल नहीं कि वे सरकार के बराबर खड़े होकर विरोध के स्वर मुखर कर सकें। इसके साथ ही मुलायम और मायावती के बीच उपजे छत्तीस के आंकड़े कई मौकों पर इसे साबित करते रहे हैं।

गोरखपुर के अधिवेशन में सपा द्वारा घोषित तीन दिनी आंदोलन को जिस तरीके से सरकार के इशारे पर प्रशासन और पुलिस के अफसरों ने विफल बनाने की कोशिश की उससे नाराज मुलायम ने गुरुवार 17 मार्च को एक बार फिर विरोध प्रदर्शन करने का एलान किया था। इस बार इसे गांवों तक फैलाने का आदेश उन्होंने कार्यकर्ताओं को दिया था। पुलिस ने बैरीकेडिंग समेत तमाम उपाय जरूर किए थे मगर 7, 8 और 9 मार्च की तरह की हरकतों को अंजाम नहीं दिया। बड़े नेता उनके निशाने पर थे मगर पुलिस अफसर क्रूरता के साथ पेश नहीं आए। मगर लखनऊ में प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ सख्ती कर सरकार ने एक बार फिर वही खीझ निकाली जिससे मुख्यमंत्री मायावती अपने दिमाग से नहीं निकाल पा रही हैं।

मुझे भगा रही सरकार!


बुलंदशहर के कारागार अधीक्षक ने केंद्र को लिखा पत्र 
कहा, उत्तराखंड जाने के लिए विवश किया जा रहा

राज्य सरकार बुलंदशहर के कारागार अधीक्षक दधिराम मौर्य के पीछे हाथ धो कर पड़ी है। उन्हें उत्तराखंड भेजने पर आमादा है। हाईकोर्ट का हस्तक्षेप नहीं होता तो सरकार कबका उत्तराखंड भेज चुकी होती। उनकी वरिष्ठता प्रभावित करने और दूसरे राज्य में आरक्षण का फायदा न मिलने की मंशा से उन्हें उत्तराखंड में जबरन धकेला जा रहा है।

बुलंदशहर के कारागार अधीक्षक राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग से लेकर राज्य के पिछड़ा वर्ग आयोग तक तथा केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार तक अपनी पीड़ा व्यक्त कर चुके हैं मगर उनकी कोई सुनने वाला नहीं है। कारागार अधीक्षक दधिराम ने डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट से बताया कि 2005 में सरकार ने राज्य कर्मचारियों के उत्तराखंड में आवंटन की प्रक्रिया शुरू की थी। जो सूची बनाई उसी के हिसाब से आवंटन की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी गई। बाद में वर्तमान सरकार ने अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों को भेजने का क्रम स्थगित कर अन्य पिछड़ा वर्ग के अधिकारी-कर्मचारी को भेदभाववश भेजना शुरू कर दिया। दधिराम ने डीओपीटी नार्थ ब्लॉक केंद्रीय सचिवालय के संयुक्त सचिव को भेजे पत्र में लिखा कि वह राज्य सेवा संवर्ग के अधिकारी हैं। उनका चयन अन्य पिछड़ा वर्ग की आरक्षित श्रेणी के तहत हुआ है तथा नवगठित उत्तराखंड राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में कनिष्ठता के आधार पर किया गया है। कारागार अधीक्षक ने कहा है कि रिजर्वेशन डिवीजन की राय एवं आरक्षण नीति के अनुसार आरक्षित श्रेणी के किसी भी व्यक्ति को उस राज्य में आरक्षण का लाभ तभी अनुमन्य होगा जब उसकी जाति उस राज्य की सूची में आरक्षित वर्ग में अंकित हो और वह उस राज्य का मूल निवासी हो। इससे तो उसकी वरिष्ठता ही प्रभावित हो जाएगी और वह इस पद पर रिटायर हो जाएगा। कारागार अधीक्षक ने केंद्रीय पिछड़ा वर्ग विभाग के निदेशक से यह भी कहा है कि पिछड़े वर्ग के कर्मचारियों के आश्रितों को भी उत्तराखंड में कोई फायदा नहीं मिलेगा। शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। ऐसे कर्मचारियों को लाभ तभी मिलेगा जब कर्मचारी उत्तराखंड का मूल निवासी हो। दूसरे राज्य सरकार ने भी पिछड़े वर्ग के कर्मचारियों के साथ भेदभाव किया है। 29 जुलाई को सरकार ने जो शासनादेश इस सम्बंध में जारी किया है, पिछड़े वर्ग के बारे में कोई चर्चा ही नहीं की गई। दधिराम ने केंद्रीय पिछड़ा वर्ग विभाग से कहा है कि इससे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत प्रदत्त विधि के समक्ष समता के प्रावधान का खंडन होता है। उनके आवेदन पर विचार न कर जबरन उत्तराखंड भेजने के लिए विवश किया जा रहा है। इससे उनके आश्रितों को उत्तर प्रदेश की सेवाओं में नियुक्ति तथा शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में प्राप्त 27 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा नहीं मिलेगी। दधिराम ने डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट को बताया कि सरकार का वश चले तो मुझे आज ही उत्तराखंड भेज दे। कोर्ट का मामला न होता तो अफसर लात मार कर भेज देते। सरकार चाह रही है कि मैं उत्तराखंड जाकर इसी पद पर रिटायर हो जाऊं।

Wednesday 16 March 2011

आव देखा न ताव, दे दिया जंग का प्रस्ताव

सलाहकारों ने मैडम को संकट में डाला
सपाइयों ने अब बनाई बड़ी रणनीति


सूबे की मुखिया मायावती के सिपहसालार ही उन्हें आए दिन नई मुसीबत में डाल देते हैं। पता नहीं वे ऐसा कर किसको फायदा पहुंचाना चाहते हैं? उनकी करतूतों से तो नहीं लगता कि वे मैडम की राह में फूल बिछा रहे हैं। इससे तो विरोधी और सीना तान कर विरोध का बिगुल फूंक रहे हैं। सपाइयों को मुख्यमंत्री ने चुनौती देकर बैठे-बिठाए ही पंगा ले लिया। तीन दिन के लगातार आंदोलन के बाद सपाई खुद ही आराम के मूड में थे। सिपहसालारों को पता नहीं क्या सूझी कि उन्होंने मैडम से दूसरे दिन ही सपाइयों के मुखिया को चेतावनी दिलवा दी। अब तो दूसरे दल भी सड़कों पर उतरने का साहस दिखलाने लगे हैं।

कहते हैं कि राजा को सलाह देने वाला मंत्री अगर अच्छा कूटनीतिज्ञ है तो वह बड़े सलीके से राजपाट चलाता है। यहां यूपी में तो मुख्यमंत्री के आस-पास जितने मशविरा देने वाले हैं, शायद सूबे की मालकिन से जल्द से जल्द छुटकारा चाहते हैं। इसीलिए वे मैडम को गाहे-बगाहे ऐसा मंत्र देते रहते हैं ताकि सरकार की फजीहत हो और सरकार की मुखिया नए संकटों से घिरती रहें। उसका फायदा विरोधी दल उठाएं। आखिरकार वही हुआ जो मुख्यमंत्री के सिपहसालार चाहते थे। चार साल से फूंक-फूंक कर कदम रख रहीं और नापतौल कर बोल रहीं माया की भृकुटि तन ही गई। उन्होंने आव देखा न ताव, दे दिया विरोधियों को फर्जी लड़ने का प्रस्ताव। नतीजा तीन दिन तक सरकारी लाठी खाने के बावजूद सपाइयों ने फिर 17 मार्च को मैदान-ए-जंग का एलान कर दिया।

सपाइयों के एलान के साथ ही सरकारी महकमे में हड़कम्प मच गया है। शासन के आला अफसर बीते दो दिनों से सपाइयों से निपटने के लिए बैठक पर बैठक कर रहे हैं। उन्हें आखिर यह समझ नहीं आ रहा है कि वे कौन सी रणनीति बनाएं। वैसे भी 7,8 और 9 मार्च के जनांदोलन में जिस प्रकार पुलिस ने सिपहसालारों के इशारे पर तांडव मचाया उससे सपाई और उत्तेजित हो उठे हैं। नेताओं व कार्यकर्ताओं का ध्यान सिर्फ बसपा सरकार को जवाब देने में लगा है। वहीं सरकार दूसरे कामकाज को छोड़ सपाइयों से निपटने में अपना ज्यादातर वक्त खर्च कर रही है। सपा नेताओं का मानना है कि अच्छा हुआ मायावती ने चुनौती दे दी है। मैडम के सलाहकार भी इस समय अच्छी सलाह दे रहे हैं। इसी तरह उनके सिपहसालार सलाह देते रहें तो समाजवादी पार्टी का काम आसान हो जाएगा। वैसे भी अब विधानसभा चुनाव के लिए ज्यादा दिन नहीं बचे हैं। इससे कार्यकर्ता एकजुट तो रहेगा ही पार्टी नेतृत्व भी उन्हें इस संघर्ष के जरिए सत्ता तक पहुंचने के लिए ऊर्जा देता रहेगा। पार्टी के वरिष्ठ नेता अंबिका चौधरी का कहना है कि मायावती को शायद यह अनुमान नहीं रहा होगा कि समाजवादी पार्टी इतनी जल्दी इस चुनौती को स्वीकार कर लेगी। उन्हें इसका मूल्य चुकता करना ही पड़ेगा।

एक परसेंट आरक्षण तो दे ही देते सर!


सरकारी मशीनरी चलाने वाले जिम्मेदार अफसर अपने बनाए नियम और कानूनों का ही पालन नहीं करते हैं। प्रमुख सचिव समेत तमाम बड़े अफसरों ने बेसिक शिक्षा परिषद द्वारा संचालित प्राथमिक विालयों के सहायक शिक्षकों के लिए विशिष्ट बीटीसी प्रशिक्षण की भर्ती में विकलांगजनों का हक ही मार दिया। खासकर अल्पदृष्टि वर्ग के सैकड़ों अभ्यर्थियों को कानूनन एक प्रतिशत आरक्षण देने की जहमत भी नहीं उठाई। अफसरों ने चतुराई पूवर्क तीनों श्रेणी के विकलांगजनों को अलग-अलग वर्ग मानकर सामूहिक रूप से तीन प्रतिशत आरक्षण उनकी भर्ती में लागू कर दिया।

विकलांगों के हक पर डाका, विशिष्ट बीटीसी प्रशिक्षण भर्ती में अफसरों ने खेला खेल
दरअसल यह खेल पूर्ववर्ती सपा सरकार के कार्यकाल के दौरान वर्ष 2004 में खेला गया। आरटीआई के तहत यह मामला सूचना आयोग तक जा पहुंचा है। धन्नाखेड़ा उन्नाव निवासी विवुधेश कुमार यादव ने तत्कालीन मुख्य सचिव को लिखे पत्र में यह शिकायत की थी कि बेसिक शिक्षा परिषद इलाहाबाद द्वारा संचालित प्राथमिक विालयों के सहायक शिक्षक पद की योग्यता के लिए विशिष्ट बीटीसी प्रशिक्षण 2004 की भर्ती में अधिनियम का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन किया गया। विकलांगजनों को एक प्रतिशत भी आरक्षण न देने के खेल में प्रमुख सचिव शिक्षा, सचिव बेसिक शिक्षा, सचिव कार्मिक, आयुक्त विकलांगजन तथा निदेशक राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद निशातगंज शामिल थे। मालूम हो कि यूपी लोकसेवा शारीरिक रूप से विकलांग, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के आश्रित और भूतपूर्व सैनिकों के लिए आरक्षण संशोधन अधिनियम 1997 की धारा 2 (1) (2) व उप धारा (1) के प्रावधानों को राज्य की लोक सेवाओं एवं पदों की, विशेषकर विशिष्ट बीटीसी प्रशिक्षण 2004 की भर्ती में अनदेखी की गई। मूलत: अधिनियम के अनुसार रिक्तियों का एक प्रतिशत आरक्षण दृष्टिहीन या अल्पदृष्टि, श्रवण ह्रास तथा चलन क्रिया सम्बंधी नि:शक्तता या प्रमष्तिस्की अंग घात वाले लोगों को देना चाहिए। मगर विशिष्ट बीटीसी प्रशिक्षण 2004 के लिए मई के अंतिम सप्ताह में घोषित 41450 अभ्यर्थियों की मेरिट सूची बनाने में अधिनियम व शासनादेशों का पालन नहीं किया गया। तीनों श्रेणियों के विकलांगजनों को अलग-अलग वर्ग मानकर प्रत्येक को रिक्तियों का एक प्रतिशत आरक्षण न प्रदान कर तीनों श्रेणियों के विकलांगजनों को एक ही वर्ग मानकर आरक्षण का लाभ दिया गया। 7 मई 2004 को 31461 अभ्यर्थियों की अंतिम सूची जारी की गई और 2004 से प्रशिक्षण प्रारम्भ हो गया। इस प्रकार सैकड़ों अल्पदृष्टि विकलांगजनों का हक मारा गया। इस ममाले में वादी विवुधेश ने बेसिक शिक्षा विभाग के जनसूचना अधिकारी व प्रथम अपीलीय अधिकारी से यह जानकारी मांगी है कि जिन बड़े-बड़े अफसरों ने कानून का उल्लंघन किया है, विकलांगों के हक पर डाका डाला है, उनके खिलाफ क्या कार्यवाई की जाएगी? शिकायतकर्ता के किसी सवाल का जवाब बेसिक शिक्षा विभाग से जुड़े न तो जनसूचना अधिकारी और न ही प्रथम अपीलीय अधिकारी ने दिया है। वह पिछले छह सालों से इंसाफ मांग रहा है। उसने अब राज्य सूचना आयोग का दरवाजा खटखटाया है।

Sunday 13 March 2011

भ्रष्टाचार की बाढ़ में डुबो दिए 500 करोड़

कागजों पर बाढ़ राहत बांटते रहे, बाढ़ में मौतों, नष्ट फसलों, ध्वस्त मकानों की जानकारी नहीं
बीते बारिश के मौसम में कई जिले बाढ़ में डूबे तो उस दौरान राजधानी में ही बैठे-बैठे नौकरशाह बाढ़ आपदा से निपटने के लिए सारे राहत कार्य पहुंचाते रहे। उन्हें यह भी नहीं मालूम था कि कुल कितने जिले और कितनी आबादी बाढ़ की विभीषिका से त्रस्त है? अफसर कागजों पर किसानों को क्षतिग्रस्त फसलों का मुआवजा, पशुओं को चारा और ध्वस्त मकान समेत किसी भी क्षति की भरपाई समय पर नहीं कर पाए थे। सिर्फ कागजों की आंकड़ेबाजी करते रहे तथा बाढ़ राहत के करीब 500 करोड़ रुपए भ्रष्टाचार की बाढ़ में डुबो दिए। बाढ़ राहत से जुड़े अफसरों द्वारा करोड़ो रुपए भ्रष्टाचार की बाढ़ में डुबोने का खुलासा आरटीआई के जरिए मिली जानकारी से हुआ है। मुरादाबाद निवासी और आरटीआई ऐक्टिविस्ट सलीम बेग ने सरकार से पूछा था कि सरकार जिस 47710.90 लाख रुपए बाढ़ राहत में खर्च करने का दावा कर रही है, उसने किस मद में और जिलों को कितने पैसे दिए हैं? चूंकि अफसर आंकड़ों के बाजीगरी में उस्ताद हैं, इसलिए उन्होंने जिलेवार आवंटित धन का ब्यौरा तो दे दिया मगर बाढ़ से कितना नुकसान हुआ है और कितने घर बह गए, कितने पेड़ गिरे, कितने पशु मारे गए, कितनी खड़ी फसलें नष्ट हुईं आदि का कोई ब्यौरा न तो राजस्व विभाग के पास है और न ही राहत आयुक्त के दफ्तर में किसी प्रकार की कोई जानकारी है। राजस्व अनुभाग के अनुसचिव राजेन्द्र प्रसाद ने जिलेवार बाढ़ राहत के मद में बताया है कि आगरा को 412.39 लाख, अलीगढ़ 1052.73 लाख, इलाहाबाद 374.52 लाख, अंबेडकर नगर 270.50 लाख, औरैया 93 लाख, आजमगढ़ 430.14 लाख, बदायूं 1030.38 लाख, बागपत 219.50 लाख, बहराइच 1160.19 लाख, बलिया 601.97 लाख, बलरामपुर 348.50 लाख, बांदा 107 लाख, बाराबंकी 1139.03 लाख, बरेली 1802.08 लाख, बस्ती 354 लाख, बिजनौर 2923.13 लाख, बुलंदशहर 307.50 लाख, चंदौली 66.50 लाख, छत्रपतिशाहूजी महराजनगर 57.50 लाख, चित्रकूट 83 लाख, देवरिया 467.50 लाख, एटा 133.50 लाख, इटावा 67.50 लाख, फैजाबाद 384.74 लाख, फरुखाबाद 1354.71 लाख, फतेहपुर 412.50 लाख, फिरोजाबाद 277 लाख, गौतमबुद्धनगर 188.50 लाख, गाजियाबाद 703 लाख, गाजीपुर 130.50 लाख, गोंडा 887.62 लाख, गोरखपुर 1964.47 लाख, हमीरपुर 56 लाख, हरदोई 2528.23 लाख, हाथरस 171 लाख, जालौन 309.87 लाख, जौनपुर 60 लाख, झांसी 261.08 लाख, ज्योतिबाफूलेनगर 515.80 लाख, कन्नौज 282.63 लाख, कानपुर नगर 159.50 लाख, कांशीराम नगर 873.37 लाख, कौशाम्बी 64.50 लाख, कुशीनगर 950 लाख, लखीमपुर खीरी 2355.87 लाख, ललितपुर 68.50 लाख, लखनऊ 213 लाख, महराजगंज 971.10 लाख, महोबा 54.50 लाख, मैनपुरी 138.50 लाख, मथुरा 656.55 लाख, मऊ 138 लाख, मेरठ 788.77 लाख, मिरजापुर 87 लाख, मोरादाबाद 2001.84 लाख, मुजफ्फरनगर 1208.35 लाख, पीलीभीत में 871.28 लाख, प्रतापगढ़ 77.50 लाख, रायबरेली 228.54 लाख, रमाबाईनगर 97.50 लाख, रामपुर 2217 लाख, सहारनपुर 2893.59 लाख, संतकबीर नगर 402.52 लाख, संतरविदास नगर 34.50 लाख, शाहजहांपुर 2204.47 लाख, श्रावस्ती 352.79 लाख, सिद्धार्थनगर 596.50 लाख, सीतापुर 1181 लाख, सोनभद्र 98.50 लाख, सुल्तानपुर 126 लाख, उन्नाव 1537 लाख और वाराणसी को 73 लाख रुपए दिए जाने का हिसाब-किताब है। इसमें 72 जिलों में बाढ़ के लिए 10073.35 लाख, कृषि में सब्सिडी देने के नाम पर 8507.99 लाख, नष्ट हुए मकान के लिए 1643 लाख, नुकसान हुए सार्वजनिक सम्पत्ति पर 22972.57 लाख, ठंड के मौसम में राहत के नाम पर 468 लाख व अन्य के मद में 3970.30 लाख रुपए जिलों में दिए गए पैसों का ब्यौरा दिया गया है।

मुख्यमंत्री के जन्मदिन को भी नहीं बख्शा!

मोबाइल मेडिकल योजना में वाहनों की खरीद में घपले का आरोप
मोबाइल मेडिकल योजना में वाहनों की खरीद में घपले का आरोपश्रीप्रकाश तिवारी

यूपी में नौकरशाह जनहित को ठोकर मारने पर तुले हैं। वे गरीबों के लिए चलने वाले मोबाइल मेडिकल वाहनों की खरीद-फरोख्त में भी घपला करने से बाज नहीं आ रहे हैं। परिवार कल्याण विभाग मोबाइल वाहन तीन एनजीओ के नाम खरीदने जा रहा है। पैसा राज्य सरकार खर्च करेगी। यही नहीं, अफसरों ने प्रदेश में मोबाइल मेडिकल योजना के नाम पर मुख्यमंत्री मायावती को भी चकमा दे दिया।

प्रदेश में मोबाइल मेडिकल योजना में इस गड़बड़झाले का पूरा माजरा टेंडर डालने वाले फिरोज पटेल द्वारा ही परिवार कल्याण निदेशक को दिए आरटीआई के तहत आवेदन में सामने आया है। आवेदन में शिकायत की गई है कि मोबाइल मेडिकल वाहन की खरीद के लिए टेंडर प्रक्रिया में फाइनेंसियल बिडिंग का प्रारूप इस तरह से तैयार किया गया है कि जिससे सिर्फ तीन एनजीओ को टेंडर दिलाया जा सके। ये एनजीओ हैं दिल्ली के अंबिका शर्मा की ‘जागरण सॉल्यूशन’, पूर्व भाजपा सांसद डॉ. जेके जैन की ‘जैन वीडियो आन विल’ और अमित गर्ग की ‘कैम्प संस्था’ जो मध्य प्रदेश की है। फिरोज ने कहा कि ठेका प्राप्त करने वाली तीनों एनजीओ में से पहले वाले ने प्रति मोबाइल वाहन का कोटेशन 16 लाख रुपए का दिया है और वह 36 वाहन खरीदेगा। दूसरे ने 36 लाख रुपए का रेट दिया है जो 59 वाहन खरीदेगा और तीसरे ने भी तकरीबन 35 लाख रुपए प्रति वाहन का रेट अपने टेंडर में दिया है। इसमें डेढ़ से दो लाख रुपए के इक्वीपमेंट शामिल हैं। टेंडर शर्तो में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत चयनित आशा लिंक वर्करों को भुगतान करने का अधिकार भी निजी कंपनियों को दे दिया गया है। मोबाइल मेडिकल योजना में सिर्फ 15 जिले ही चयनित हैं। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि परिवार कल्याण विभाग के अफसरों ने मुख्यमंत्री को भी नहीं बख्शा। शिकायतकर्ता ने बताया कि मायावती के जन्मदिन पर दिल्ली के एनजीओ ने बिहार में गरीबों की सेवा में लगा मोबाइल वाहन मंगवाया। उस पर मायावती का पोस्टर चिपकाया। फिर मुख्यमंत्री का पोस्टर हटाकर वापस बिहार रवाना कर दिया। मोबाइल मेडिकल यूनिट योजना में भ्रष्टाचार की शिकायत के संबंध में डीएनए ने महानिदेशक उषा नरायन के मोबाइल नं. 9415742424 पर प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उन्होंने फोन नहीं उठाया। इस संबंध में विभागीय प्रमुख सचिव प्रदीप शुक्ला से पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि दफ्तर में आइए तभी बात हो पाएगी। शिकायतकर्ता का कहना है कि 150 मोबाइल मेडिकल वाहन खरीदने के लिए तीनों एनजीओ विभागीय अफसरों से मिलकर सरकार को चूना लगाने की फिराक में हैं।

Monday 7 March 2011

दस-दस हजार में छात्रों का बीएड में दाखिला

विश्वविद्यालय ने सरकार को लिखा पत्र 
रुहेलखंड विवि ने की 31 कॉलेजों के बीएड की सम्बद्धता खत्म
यूपी में बदतर होती शिक्षा व्यवस्था के लिए राज्य सरकार सीधे तौर पर जिम्मेदार है। शिक्षा माफियाओं का काकस सरकार और अफसरों पर इस कदर भारी है कि वे स्ववित्त पोषित पाठ्यक्रम चलाने के नाम पर लूट मचाए हैं। शाहजहांपुर के जीएफ कॉलेज ने तो बीएड में प्रवेश के लिए छात्रों से 10-10 हजार रुपए ऐंठ लिए और उन्हें पांच-पांच हजार रुपए की रसीद पकड़ा दी। जबकि सबसे चौकन्ना कर देने वाली बात यह है कि जीएफ कॉलेज एनसीटीई से मान्यता प्राप्त भी नहीं है। रुहेलखंड विश्वविालय ने भ्रष्टाचार में डूबे ऐसे 31 महाविालयों की बीएड की सम्बद्धता समाप्त कर शासन को पत्र लिखा है, जो शिक्षा के नाम पर करोड़ो रुपए अंदर कर रहे हैं।

शाहजहांपुर के जीएफ कॉलेज की इस कारस्तानी का खुलासा आरटीआई के जरिए हुआ है। केन्द्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद ने सूचना का कानून के तहत स्पष्ट किया है कि शाहजहांपुर का जीएफ कॉलेज एनसीटीई द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है। इस कॉलेज को सशर्त अस्थायी मान्यता देना प्रस्तावित था किंतु शर्त पूरी न होने पर कमेटी ने मान्यता निरस्त कर दी है। उधर बरेली के उच्च शिक्षा अधिकारी डॉ. अश्विनी कुमार गोयल ने शाहजहांपुर के जिलाधिकारी को भेजे एक पत्र में खुद स्वीकार किया है कि यह कॉलेज न तो एनसीटीई द्वारा मान्यता प्राप्त है बल्कि कॉलेज शासन को भी स्ववित्त पोषित बीएड के पाठ्यक्रम की भ्रामक जानकारी देता रहा है। अल्पसंख्यक संस्था होने की आड़ में तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया।

क्षेत्रीय उच्च शिक्षा अधिकारी ने यह कह कर चौंका दिया कि बीएड में प्रवेश के समय छात्रों से 10-10 हजार रुपए वसूले गए और उन्हें पांच-पांच हजार रुपए की रसीद काट कर थमा दी गई। 22 छात्रों ने तो हलफनामा देकर यह स्वीकार भी किया है कि उनसे 10-10 हजार रुपए बीएड में प्रवेश के तौर पर वसूले गए हैं।

शिकायतकर्ता गौरव शुक्ला ने डीएनए को बताया कि रुहेलखंड विश्वविालय ने ऐसे 31 महाविालयों को चिन्हित किया है जो गैर कानूनी तौर पर स्ववित्त पोषित पाठ्यक्रम चला रहे हैं। छात्रों से मनमाने पैसे वसूल रहे हैं। विश्वविालय ने कार्यपरिषद की बैठक में 31 महाविालयों की बीएड की सम्बद्धता वापस लिए जाने का निर्णय लिया है। इसमें एस एन कॉलेज चंदोसी, जीएसडी कॉलेज सुरजन नगर मुरादाबाद, मुस्लिम गर्ल्स कॉलेज मुरादाबाद, ग्रामोदय महाविालय मुरादाबाद, बिबेक कॉलेज बिजनौर, नायाब अब्बासी गर्ल्स कॉलेज अमरोहा, आरपी डिग्री कॉलेज मीरगंज बरेली, मॉडल पब्लिक कॉलेज, एजूकेशन मुरादाबाद, स्प्रिंगडेल कॉलेज पीलीभीत, रक्षपाल बहादुर टीचर्स ट्रेनिंग इंस्टीटयूट बरेली, खंडेलवाल कॉलेज बरेली, धर्मजीत सिंह महाविालय शाहजहांपुर, राशिदाबेगम मुस्लिम महाविालय अमरोहा, आरएसडी एकेडमी मुरादाबाद, हाशमी गर्ल्स कॉलेज अमरोहा, गोविंद डिग्री कॉलेज मुरादाबाद, धामपुर डिग्री कॉलेज धामपुर, बालाजी एकेडमी मुरादाबाद, ज्योति कॉलेज बरेली, बाबू राम सिंह भाई सिंह महाविालय बदायूं, केवलानंद बीएड कॉलेज बिजनौर, विवेकानंद महाविालय बिजनौर, श्रीराम कॉलेज ऑफ एजूकेशन गजरौला, फैज ए आम कॉलेज शाहजहांपुर, स्प्रिंगडेल महाविालय बरेली, रामा इंस्टीट्यूट ऑफ हायर एजूकेशन बिजनौर, भगवंत सिंह महाविालय मुरादाबाद, पुष्प इंस्टीट्यूट पीलीभीत, आरबीडी महिला महाविालय बिजनौर, सैय्यद डिग्री कॉलेज बदायूं और जुगल किशोर महाविालय बदायूं की बीएड की सम्बद्धता वापस लिए जाने का निर्णय लिया है।

डीजी हेल्थ से जुर्माना वसूलेंगे डीएम


चिकित्सा एवं स्वास्थ्य महानिदेशक और जनसूचना अधिकारी पर 25 हजार का दंड
चिकित्सा एवं स्वास्थ्य महानिदेशक और जनसूचना अधिकारी पर 25 हजार का दंड
यूपी में बड़े अफसर सूचना के कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं। उन पर सूचना आयोग की चेतावनी का भी असर नहीं पड़ता है। आयोग ने सेवानिवृत्त स्वास्थ्य निरीक्षक की पेंशन के एक मामले में प्रदेश के स्वास्थ्य एवं चिकित्सा महानिदेशक को कानून के उल्लंघन का दोषी ठहराते हुए 25 हजार रुपए का जुर्माना ठोंका है। इसके साथ ही आयोग ने लखनऊ के जिलाधिकारी को यह आदेश दिया है कि वे चिकित्सा एवं स्वास्थ्य महानिदेशक से जुर्माना वसूल कर ट्रेजरी में जमा कराएं और इसकी सूचना आयोग को दें।

सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र घोसी मऊ के राजेन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव ने मुख्य सूचना आयुक्त को लिखे पत्र में कहा कि वह वर्ष 2004 से सेवानिवृत्त कर्मचारी हैं। वह सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र घोसी में स्वास्थ्य निरीक्षक के पद पर कार्यरत था और यहीं से फरवरी 2004 में सेवानिवृत्त हुआ। उसका वेतनमान शासनादेश के अनुसार 5500-9000 रुपये मुख्य चिकित्साधिकारी मऊ से स्वीकृत था। सेवानिवृत्ति के बाद इस वेतन क्रम में पेंशन स्वीकृति के लिए पेंशन निदेशालय वाराणसी को भेजा था। मगर वहां से लौटाते हुए यह कहा गया कि यह वेतनमान गलत है और आप 5000-8000 रुपए वेतनमान के तहत आते हैं। जबकि अन्य स्वास्थ्य निरीक्षक 5500-9000 वेतनमान के आधार पर पेंशन प्राप्त कर रहे हैं।

हर स्तर पर निराश वादी ने सूचना आयोग का दरवाजा खटखटाया। इस मामले में आयोग ने महानिदेशक चिकित्सा एवं स्वास्थ्य कार्यालय के जनसूचना अधिकारी पर 25 हजार रुपए का जुर्माना ठोंका और लखनऊ के जिलाधिकारी से दंड की राशि वसूल कर ट्रेजरी में जमा कराने के निर्देश दिए। इसके साथ ही आयोग ने महानिदेशक को भी चेतावनी दी थी कि वह वादी को एक माह के भीतर सूचनाएं उपलब्ध करा दें अन्यथा उन्हें जनसूचना अधिकारी घोषित करते हुए उनके विरुद्ध भी जुर्माना किया जाएगा। इसके बावजूद महानिदेशक चिकित्सा एवं स्वास्थ्य के सूचना नहीं देने पर राज्य सूचना आयुक्त वीके सक्सेना ने उन्हें जनसूचना अधिकारी घोषित करते हुए उन पर साशय सूचना न देने के आरोप में 25 हजार रुपए जुर्माना किए जाने का आदेश पारित किया है। आयोग ने जिलाधिकारी को निर्देश दिया कि वह महानिदेशक चिकित्सा एवं स्वास्थ्य से आर्थिक दंड की धनराशि वसूल कर ट्रेजरी में जमा कराएं। इसकी सूचना राज्य सूचना आयोग को प्रेषित करें।

फेल हो गया सरकार का सूचना तंत्र

मुख्यमंत्री के आदेशों का मखौल, 5 हजार से अधिक की आबादी वाली ग्राम पंचायतों की जानकारी नहीं

सरकार का सूचना तंत्र और सरकारी मशीनरी इस कदर फेल हो गई है कि उसे यह नहीं मालूम कि यूपी में पांच हजार व 10 हजार से अधिक कितनी ग्राम पंचायतें हैं? उधर मुख्यमंत्री मायावती ने अपने जन्मदिन पर यह घोषणा की थी कि सरकारी सुविधाओं को ग्रामीण क्षेत्र में सुलभ कराने के लिए ग्राम पंचायत सचिवालयों का निर्माण किया जाएगा। मगर जब पंचायतीराज विभाग के पास बड़ी-बड़ी आबादी वाली ग्राम पंचायतों की जानकारी तक नहीं है तो उसके लिए पंचायत सचिवालय बनाना ही बड़ा मुश्किल हो जाएगा।

पंचायतीराज विभाग ने मुख्यमंत्री मायावती के आदेश का ही मखौल बना कर रख दिया है। मैडम ने अपने जन्मदिन 15 जनवरी को यह एलान किया था कि विकास योजनाओं तथा सरकारी सुविधाओं को ग्रामीण क्षेत्र की जनता तक सुलभ कराने के उद्देश्य से ग्राम पंचायत सचिवालयों की स्थापना सभी पंचायतों में चरणबद्ध तरीके से की जाएगी। प्रथम चरण में अगले एक वर्ष में पांच हजार से अधिक जनसंख्या वाली ग्राम पंचायतों में सचिवालय प्रारम्भ कर दिए जाएंगे। इन ग्राम पंचायत सचिवालयों में विभिन्न विभागों के ग्राम स्तर के कर्मचारी निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार नियमित रूप से मौजूद रहकर ग्रामीण जनता को अपने विभागों से सम्बंधित सेवाएं उपलब्ध कराएंगे। मुख्यमंत्री की घोषणा के तकरीबन एक महीने बाद पंचायतीराज विभाग के सचिव आलोक कुमार ने प्रदेश के सभी जिला पंचायतराज अधिकारियों को पत्र लिखकर पांच हजार से अधिक आबादी वाली ग्राम पंचायतों की जानकारी इकट्ठी करनी शुरू की। सरकारी सूत्र बताते हैं कि अभी तक यह नहीं पता चल पाया है कि प्रदेश में ऐसी कितनी ग्राम पंचायतें हैं जिनकी आबादी पांच हजार व 10 हजार से अधिक हैं। इन दिनों पूरा विभाग ऐसी पंचायतों को ढूंढ़ने में लगा है।

पता चला है कि पंचायतीराज निदेशक ने जिला पंचायतराज अधिकारियों को एक प्रारूप पत्र भी भेजा था जिसमें ग्राम पंचायतें जिनमें पंचायत भवन नहीं हैं, ग्राम पंचायतें जिनमें पंचायत भवन हैं किंतु जीर्ण-शीर्ण हैं, मरम्मत योग्य नहीं हैं उन्हें नए सिरे से बनाने होंगे। ग्राम पंचायतें जिनमें पंचायत भवन हैं जिन्हें मरम्मत कर प्रयोग योग्य किया जा सकता है। पंचायत भवन जिनमें मात्र एक कक्ष तथा सभा कक्ष है। पंचायत भवन जिनमें मात्र एक कक्ष है किंतु सभा कक्ष नहीं है या फिर पंचायत भवन जिनमें मात्र सभा कक्ष है किंतु कक्ष नहीं है। सरकारी सूत्रों का कहना है कि दरअसल ज्यादातर ग्राम पंचायतों में पंचायतभवन नहीं हैं। लखनऊ में बैठे अफसर इतने सारे विकल्प देकर जिलों के अधिकारियों को उलझाने में लगे हैं ताकि वे इसी में परेशान रहें तथा पंचायत भवनों पर मिलने वाले अरबों रुपयों को वे अपने तरीके से खर्च करें। शासन में बैठे अफसरों के इन मंसूबे से न तो पंचायत भवनों की जानकारी मिल पा रही है और न ही पंचायत सचिवालय बनाने की दिशा में मुख्यमंत्री के आदेश का अभी तक कोई पालन ही किया गया है।

सरकारी सूत्र बताते हैं कि अकेले मेरठ में पांच हजार से अधिक आबादी वाली दर्जनों ग्राम पंचायतें हैं। इस जिले में दतावली ग्राम पंचायत की आबादी 5965, जानीबुजुर्ग ग्राम पंचायत की 5873, पांचलीखुर्द की 6593, हर्रा 14772, सौदत्त की 7038, खेडा 6100, रोहटा 10050, इंचौली 12094, किनानगर 6813, कमालपुर 5364 सहित 22 ग्राम पंचायतों की आबादी पांच हजार से अधिक है। पांच हजार से अधिक की आबादी वाली ग्राम पंचायतों की नहीं मिल रही सूचना पर निदेशक डीएस श्रीवास्तव से जब डीएनए ने पूछा तो उन्होंने शासन की बैठक में व्यस्त होने का बहाना बताकर जवाब देने से टालमटोल कर गए।

Wednesday 2 March 2011

सरकार का गांवों से टूट गया तार

डेढ़ दर्जन जिलों में ग्रामसभा की बैठकों से अनभिज्ञ सरकार
पंचायतों को स्वशासन की इकाई के रूप में सक्षम बनाने के सरकारी दावे सिर्फ हवाहवाई ही साबित हुए हैं। प्रदेश सरकार ने कभी यह सुध नहीं ली कि ग्राम पंचायतों में गठित समितियां काम कर भी रही हैं अथवा नहीं। विभिन्न विभागों की गतिविधियां गांवों में चल भी रही हैं कि नहीं। हालत यह है कि दर्जनभर जिले ऐसे हैं जहां ग्राम पंचायतों की किसी भी गतिविधियों की जानकारी सरकार के पास नहीं है।

राज्य सरकार लगातार यह दुहाई दे रही है कि गांवों में आर्थिक एवं सामजिक विकास से ही प्रदेश की तरक्की संभव है। आजादी के बाद सबसे पहले उत्तर प्रदेश में पंचायतीराज व्यवस्था लागू करने के उद्देश्य से संयुक्त प्रांत पंचायतराज अधिनियम 1947 पारित कर 1949 में गांव सभाओं की स्थापना की गई। सत्ता के विकेन्द्रीकरण के लिए गठित बलवंतराय मेहता समिति की संस्तुतियों के आधार पर 1961 में प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था लागू करने के उद्देश्य से क्षेत्र समितियों तथा जिला परिषदों का गठन किया गया। राज्य सरकार का पंचायतीराज विभाग यह कहते थकता नहीं कि पंचायतों को स्वशासन की इकाई के रूप में सक्षम बनाना और उन्हें आर्थिक रूप से सुदृढ़ करना सरकार की प्राथमिकताओं में से एक है। इसके लिए 16 कार्य पंचायतों को हस्तांतरित किए गए हैं। विभिन्न विभागों की 10 गतिविधियों व योजनाओं के लिए ग्राम पंचायतों को धन दिया जा रहा है मगर वे कहां कितना खर्च कर रहे हैं सरकार के पास इसकी बिलकुल जानकारी नहीं है। मालूम हो कि राज्य सरकार गांवों में राजकीय नलकूप, हैंडपंप, चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, महिला एवं बाल विकास, युवा कल्याण, समाज कल्याण, पशुधन विभाग, कृषि, ग्राम्य विकास, प्राथमिक विालय, मातृ एवं शिशु कल्याण केंद्र आदि योजनाएं चल रही हैं। ताज्जुब की बात तो यह है कि विकास से सम्बंधित गठित डेढ़ दर्जन जिलों में ग्राम समितियों के किसी गतिविधि की जानकारी सरकार के पास नहीं है। विभाग की जानकारी के अनुसार वर्ष 2009-10 में गाजियाबाद, बुलंदशहर, महामायानगर, पीलीभीत, उन्नाव, छत्रपतिशाहूजी महराजनगर, सुलतानपुर, बलरामपुर, फतेहपुर, वाराणसी, महोबा, मऊ, इटावा जिले के किसी भी ग्राम पंचायत की बैठक की सूचना सरकार को नहीं प्राप्त हुई है। इसी प्रकार वर्ष 2009-10 में भी 14 जिलों इटावा, मऊ, महोबा, वाराणसी, फतेहपुर, बलरामपुर, सुलतानपुर, छत्रपतिशाहूजी महराजनगर, उन्नाव, पीलीभीत, फिरोजाबाद, महामायानगर, बुलंदशहर व गाजियाबाद के किसी भी ग्रामसभा की बैठकों की जानकारी राज्य सरकार के पास उपलब्ध नहीं है। इसी तरह सहारनपुर, आगरा, मथुरा, रामपुर, श्रावस्ती, प्रतापगढ़, मिर्जापुर, संतरविदासनगर, हमीरपुर, झांसी, ललितपुर व जालौन जिले के ग्राम पंचायतों में गठित समितियों की किसी भी गतिविधि की जानकारी पंचायतीराज विभाग के पास नहीं है। डेढ़ दर्जन जिलों में इस प्रकार की संवादहीनता पर पंचायतीराज निदेशक डीएस श्रीवास्तव ने इस प्रकार की किसी भी शिकायत से इंकार करते हुए कहा कि आप हमे लिखकर दे दीजिए मैं इसे दिखवा लूंगा। उल्लेखनीय है कि पंचायत स्तर पर सभी कार्यो में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत तथा जिला पंचायत स्तर पर छह समितियों की संस्तुतियों की व्यवस्था की गई है। इन समितियों के किसी भी गतिविधि की जानकारी सरकार के पास नहीं है।

महिलाओं को काम देने में सरकार फिसड्डी

बड़बोलेपन से बाज नहीं आ रहे अफसर
मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी सबसे कम
बड़बोलेपन से बाज नहीं आ रहे अफसरश्रीप्रकाश तिवारी
 यूपी में मनरेगा के चलते केन्द्र और राज्य के रिश्तों में दरार तो पैदा हुआ ही है, साथ ही अब तो अफसर इस मुद्दे पर राजनीति की भाषा भी बोलने लगे हैं। अधिकारी इस हद तक कहने का दुस्साहस कर रहे हैं कि केन्द्र, प्रदेश में मनरेगा की सफलता से चिढ़ता है। इसलिए उसे सारी कमियां उत्तर प्रदेश में ही दिखाई देती हैं। अफसरों का बड़बोलापन तब है जब सिर्फ यूपी में मनरेगा के तहत महिलाओं को काम देने में सरकार फिसड्डी साबित हुई है।

मनरेगा में महिलाओं की अनदेखी का खुलासा ग्राम्य विकास आयुक्त के पत्र से हुआ है जिसमें उन्होंने जिलाधिकारियों को लिखा है कि 33 प्रतिशत महिलाओं को रोजगार देने का प्राविधान है। अभी तक औसतन 18 प्रतिशत महिलाओं को ही कार्य मिल पा रहा है। महिलाओं की कम भागीदारी के प्रमुख कारणों को इंगित करते हुए कहा है कि उनका जाब कार्ड में नाम नहीं होता है। बैंक खाते अलग नहीं होते। पंचायतकर्मी महिलाओं को कम सहयोग करते हैं। कार्य स्थल पर अधिक संख्या में श्रमिकों के आने की दशा में महिलाओं को वापस किया जाता है। अवांछित लोगों के हस्तक्षेप के कारण महिलाओं को प्रताड़ित होना पड़ता है। उनके मजदूरी का भुगतान विलम्ब से किया जाता है। महिलाओं के बच्चों की देखरेख की सुविधा नहीं होती है। कुएं आदि के निर्माण में महिलाओं से काम ही नहीं लिया जाता है।

गौरतलब है कि इन दुश्वारियों के बाद भी राज्य सरकार यह खुशफहमी पाले है कि 100 प्रतिशत महिलाएं यह कहती हैं कि उनके परिवार को मनरेगा के पैसों से खाने-पीने का बेहतर इंतजाम हो जाता है। 17 प्रतिशत महिलाओं ने कहा है कि उन्हें रोजगार की तलाश में बाहर नहीं जाना पड़ता है। मनरेगा के पैसे बीमारी पर खर्च करती हैं। उन्हें अब जोखिम वाले कामों से भी छुटकारा मिला है। 67 प्रतिशत महिलाएं यह कहती हैं कि इस पैसे को वह कर्जे की किश्त भरने तथा 50 प्रतिशत महिलाओं ने बच्चों की शिक्षा पर धन खर्च करने की बात स्वीकार की है। अफसरों का यह बड़बोलापन महज कोई पहल न करने से है। पिछले चार साल में मनरेगा के आंकड़े देखें तो महिलाओं के विकास की पोल स्वत: खुल जाएगी। वर्ष 2006-07 में 16 प्रतिशत, 2007-08 में 15 प्रतिशत, 2008-09 में 18 प्रतिशत, 2009-10 में 21 प्रतिशत और 2010 -11 में 22 प्रतिशत महिलाओं को उत्तर प्रदेश में रोजगार मिला है। यही नहीं, सरकारी उदासीनता की वजह से सामाजिक असंतुलन के साथ-साथ क्षेत्रीय असंतुलन भी मनरेगा में देखने को मिला है। विभिन्न जिलों के अफसर यह स्वीकार करते हैं कि बुंदेलखंड, पूर्वाचल के कुछ जिलों के अलावां मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी बिलकुल शून्य है। ग्राम प्रधानों, पंचायतकर्मियों तथा अन्य कारणों से दलित व वंचित वर्ग की महिलाएं भी मनरेगा से मुह मोड़ रही हैं। मनरेगा में महिलाओं की बढ़ती अरुचि व उनकी कम सहभागिता पर डीएनए ने जब ग्राम्य विकास विभाग के सचिव मनोज कुमार सिंह से उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उन्होंने कहा कि बाद में बात करेंगे।