Wednesday 22 June 2011

सिर्फ सवाल ही सवाल बचे हैं मैडम!

सत्तारूढ़ बसपा सरकारी तंत्र को जनता से जोड़ने में विफल
लखनऊ। यूपी के पूर्ववर्ती सरकारों की मुख्यमंत्रियों से अलग हटकर काम करने वाली बसपानेत्री मायावती ने सत्ता हांकने की जो मिशाल कायम की है शायद ही कोई उनके पदचिन्हों पर चल पाए। मुख्यमंत्री रहते जनता से सीधे संवाद न करना, जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों से दूरी बनाए रखना, जनता की समस्याओं के समाधान के लिए बनी सबसे बड़ी पंचायत विधानमंडल का सत्र सिर्फ सरकारी एजेंडे के इस्तेमाल के लिए करना तथा जनता से सीधे जुड़े थानों, तहसीलों और जिला मुख्यालयों का राजनीतिक प्रभाव में काम करना निश्चित रूप से प्रदेश को कानूनी संकट में डालने वाला काम है। सरकारी मशीनरी इन्हीं की तारतम्यता से चलती है और पटरी से भी उतरती है।
कानून व्यवस्था के नाम पर सत्तारूढ़ हुई बसपा पशोपेश में इसलिए है कि उसने सरकारी तंत्र को सिर्फ सत्ता के हथियार के रूप में बेजा इस्तेमाल किया, उसे जनता से जोड़ने में विफल साबित हुई है, जिसका खामियाजा सत्तारूढ़ दल ने भुगतना शुरू कर दिया है। जिस तरह से पिछले चार सालों में थाने, तहसील व जिला मुख्यालयों पर बैठे जिलाधिकारी, पुलिस कप्तान से लेकर थाने के दारोगा सरकार के इशारे पर काम कर रहे थे वे भी अब एक सूत्रीय सरकारी दबाव से निजात पाना चाहते हैं। प्रदेशभर में हर रोज खुलेआम हो रहे अपराधों की घटना उसी का दुष्परिणाम है। थानों से लेकर जिलाधिकारियों के दफ्तर अपराध कम दिखाने के चक्कर में छोटी-छोटी घटनाओं को डंडे के बल पर नजरअंदाज करने में लगे थे। जिलों में कानून व्यवस्था बनाए रखने का यह फामरूला थोड़े दिनों तक जरूर सफल रहा मगर सरकार के आखिरी साल में कारगर साबित नहीं हो पाया।
सबसे चौकाने वाला तथ्य यह है कि पिछले चार सालों में जितने भी बड़े अपराध उजागर हुए हैं वे ज्यादातर सत्तारूढ़ दल से जुड़े लोगों के जरिए ही सामने आए हैं। चाहे जन्मदिन की वसूली के आरोप में शेखर तिवारी जेल गए हों, बलात्कार के आरोप में पुरुषोत्तम द्विवेदी सलाखों के पीछे हों या मंत्रियों, विधायकों व सत्तारूढ़ दल से जुड़े अन्य नाम किसी न किसी घटनाक्रमों के माध्यम से चर्चा में आए हों। इसके अलावा राजनीतिक विरोधियों को भी राजनीतिक विद्वेषवश कानूनी शिकंजे में कसने की कोशिश की गई जो हर मोर्चे पर सरकार के असफल रहने का शोर मचा रहे थे। इसके साथ ही सरकारी बल प्रयोग के शिकार बने वे तमाम शैक्षिक, राजनीतिक, सामाजिक व सरकारी कर्मचारियों के संगठनों ने सरकार को बनेकाब करने में अब अपनी कसर निकाल रहे हैं। मुख्यमंत्री मायावती का यह कहना बिलकुल सच है कि बड़ा राज्य होने के नाते इतनी तादाद में अपराधों का घटित होना चौंकाने वाली बात नहीं है। मगर सवाल यहां यह भी है कि बीते चार सालों में ये घटनाएं क्या सरकारी डंडे के चलते दबी रहती थीं या फिर कानून व्यवस्था इतनी चाक-चौबंद थी कि लोगों ने सरकारी भय से अपराध करना ही छोड़ दिया था। पिछले छह महीनों में एकदम से अपराधों का ग्राफ बढ़ने का सीधा मतलब है कि या तो सरकार का प्रशासनिक नियंत्रण पटरी से उतर चुका है या फिर सरकारी निर्देशों को अधिकारी नजरअंदाज करने लगे हैं। अब वे सरकार को उसकी हाल पर छोड़ चुके हैं।

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